ज़िंदगी के प्रति रूख़


अपनी शैक्षणिक रूचि के बावजूद, बीरबल किसी सूरत में भी एकांतवासी नहीं थे तथा उन्होंने हालांकि अपने तरीके से जीवन के पड़ाव का पूरी सीमा में आनंद लिया। कैंब्रिज में जब भारतीय विद्यार्थियों ने रोचक परिधान का मंचन किया, वह साधु (मुनि) के रूप में आए, जो उनकी अंतरात्मा को कुल मिलाकर अप्रतीकात्मक नहीं था। वह खेल के अति शौकीन थे तथा खेल-कूद में बहुत समय तक रूचि बरकरार रखी। उन्होंने अपने स्कूल एवं कालेज हाकी एकादश का ही प्रतिनिधित्व नहीं किया अपितु वह सरकारी स्कूल, लाहौर में भी टेनिस में अति पुष्ट थे। कैंब्रिज में उन्होंने आॅक्सफोर्ड मजलिस के खि़लाफ़ टेनिस में विजेता कैंब्रिज भारतीय मजलिस का प्रतिनिधित्व किया।

हिमालय में टेढ़े-मेंढ़े रास्ते


बीरबल ने अपनी रोज़मर्राह की पढ़ाई और इम्तहान के कार्य का महत्वपूर्ण त्याग कर भी छात्र काल में भी हिमालयी पादपों का सबसे बड़ा संग्रहण किया। उन्होने हिमालय की विपुल अध्ययन यात्राएं कीं जिसके दरम्यान हुकर की फ्लोरा आॅफ ब्रिटिश इंडिया (ब्रिटिश भारत के पेड़-पौधे) उनकी अपरिवर्ती संगी रही। इन पादपों के अन्वेषण में, दूसरे कामों का ख़्याल रखे बिना वह बहुत ज़्यादा वक्त तक निष्ठावान रहे, मैं विश्वास करता हॅंूं कि उनमें से कुछेक अब नूतन पादपालय की पूंजी हैं। बाह्य जीवन एवं पर्वतारोहण वक़्त से पहले किए गए जोश थे। बुरान दर्रा (16,800 फुट ऊंचा) सन्निहित करते हुए पठानकोट से रोहतांग दर्रा; कसौली होते हुए कालका से चिनी (हिंदुस्तान-तिब्बत मार्ग), सुबाथु, शिमला, नरकंडा, रामपुर, बुशर किल्बा के टेढ़े-मेंढ़े रास्तों की छलांगें उल्लेखनीय हैं। शिमला से द्रास, जोजिला दर्रा पार, श्रीनगर से अमरनाथ (14,000 फुट ऊंचाई और मार्गस्थ 16,000 फुट के लगभग दूसरी चढ़ाई), विश्लाव दर्रा होते हुए शिमला से रोहतांग (12,000 फुट) और वहां से पठानकोट के अन्य टेढ़े-मेंढ़े रास्ते तय किए गए।
यूरोप से वापसी के उपरांत, 1920 में बीरबल ने लंबे टेढ़े-मेंढ़े रास्ते तय किए जिनमें पठानकोट से लेह सर्वाधिक महत्वपूर्ण था। स्वयं उत्कट वनस्पतिविज्ञानी स्वर्गीय प्रो. एस.आर. कश्यप के सान्निध्य में पठानकोट-खजियार-चंबा, लेह और वहां से जोजिला दर्रा-बालटाल-अमरनाथ-पहलगाम और अंत में जम्मू होते हुए वापसी के इन टेढ़े-मेंढ़े पथों का अनुसरण किया गया था। यह दौरा कई सप्ताहों तक चला और हिमालयी पादपों के प्रचुर संग्रहण का परिणामी रहा। बीरबल ने 1923 और 1944 के मध्य अपनी धर्मपत्नी के साथ क बार हिमालय में कई टेढे़-मेंढ़े मार्ग तय किए।